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History

कमलापुरी वैश्य का इतिहास

प्रागेतिहासिक - स्मृतिकारों और उत्तके अनुयोगियों ने सभी उप-जातियों को संकर वर्ण की कोटि में रखने की परिपाटी चला दी थी । चाहे जिस कारण (नाम भेद या निवास-स्थान भेद) से जप्तियों का जन्म हुआ हो तथा अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के फलस्वरूप स्मृतिकार तथा उनके अनुयायीगण ब्राह्मणेतर जातियों को किसी न किसी प्रकार संकरवर्ण में सम्मिलित करते रहते हैं ।

क) “जातिमाला ” ग्रन्थ में कमलापुरी वैश्य – रुद्रजामल ' के रचियता ने 'जातिमालान्तर्गत” कमलापुरी वैश्य संकरवर्ण माना है । प्रसंगानुसार रूद्रजामल के शिव-परशुराम संवाद में “जातिमाला” में जातियों, उप-जातियों में कमलापुरी वैश्य का भी उल्लेख है । प्रसंग इस प्रकार है -सर्वप्रथम चतुर्वर्ण की सृष्टि हुई । इसके पश्चात्‌ राल-क्रम में अन्यान्य जातियों व उपजातियों की उत्पत्ति हुई ।

“जम्बूदीप में दस प्रकार के विप्र हुए - सारस्वत, कान्यकुब्ज, गौड़, मैथिल, उत्कल, द्रविड़, महाराष्ट्री, तेलंगी, गुज्जर और कराश्मीरी ।” ये सभी स्थान-बोधक विशेषण मात्र हैं । तदनन्तर सुकरवर्णों का वहाँ वर्णन है । संकरवर्णो के वर्णन के प्रसंग में लिखा है - वैश्य से अम्बष्ट-कन्या में राजपुत्र पैदा होता है जो शज़तंणी के नाम से प्रसिद्ध है । अम्बष्ट से राजवंशी-कन्या में गर्धिकवणिक हुआ जो गन्ध बनिया के नाम से प्रसिद्ध है (जिसमें सेगान्धी जी थे) गन्ध बत्तिये की स्त्री में राजवंशी द्वारा शंख क्रारक हुआ जो सखेरा के नाम से विख्यात है । उसके वंश में ह्ञाम्रकूट से कांसकार पैदा हुआ जो कसेरे के नाम से प्रसिद्ध है । लाम्नरकूट से शंखकाट स्त्री में मणिकार हुआ जो मणिहारी बनिया नाम से प्रसिद्ध हुआ । मणिकार से ताम्रकूटी में मणिबन्धक पैदा हुए जो 'कमलापुरी वैश्य' के नाम से प्रसिद्ध हैं ।”

ख) परन्तु कमलापुरी वैश्य के विषय में यजुर्वेद भाष्यकार विद्यावारिधि पंडित श्री ज्वालाप्रसाद मिश्र, महामहोपदेशिक, भारतधर्म महामण्डल, बनारस ने अपने “जाति-भास्कर” नामक मान्य में निम्न प्रकार लिखा है -“कमलापुरी वैश्य - यह वास्तव में कमलापुर के रहने वाले हैं पीछे जौनपुर आ गये । इनमें कुछ धनी भी हैं और कमलापुरी ,उपनाम जौनपुरी कहाते हैं । वाचस्पत्य वृहद्विधान में कमलापुर का वर्णन है (कमलालय महालक्ष्मी: कमलार्ख्या महेश्वरः) । राजतरंगिणी में तरंग 4, श्तोक 484 (राजा मल्हान पुरकृच्चक्रे विपुल केशवम्‌ । कमला सापि नाम्ना स्वं कमलाख्यपुरं व्याधात्‌ ॥) कर्मविपाक संहिता के नवतिशत (90) अध्याय में (पश्चिमायां महादेवी जवनस्थपुरं महत्‌) हैं । इन प्रमाणों से जवनपुर पाया जाता है | बैंश्य लोग लक्ष्मी के पूजन करने वाले होते हैं । लक्ष्मी का नाम कमला है । कमलापुर के रहने से कमलापुरी कहाये । भलन्दन और कश्यप आदि इनके गोत्र हैं ।” इस वर्णन से स्पष्ट ज्ञात होता है कि कमलापुरी वैश्य कमलापुर के निवासी थे । बाद में रोजगार व्यापार के सिलसिले में वे किसी जवनपुर में जा बसे जिससे उस स्थान का विशेषण भी कमलापुरी विशेषण के साथ सम्बद्ध हो गया । ये लोग जवनपुरी या कमलापुरी जवनपुरी और जवनपुरी के विशेषण से अपना निर्देश करने लगे ।

ग) उपरोक्त काल में ही प्रख्यात चीनी यात्री गम साँग भारत भ्रमण को आया था जिसमें तत्काल सामाजिक स्थिती एम स्मृति का उल्लेख अपने लेखों में किया था । जहाँ शेष भारत में गुप्त वंशीय राजाओं के शासन काल में उत्कर्ष का स्वर्ण युग था हूँ, जिसकी चरम वृद्धि महाराज हर्ष वर्धन द्वारा सम्पन्न हुई वहाँ, उसी समय कश्मीर में भी वैश्य वंशीय करा कोट राजवंश का स्वर्ण युग चल रहा था कश्मीर से उत्तर पश्चिमी काबुल नदी की उपाख्यया को पूर्ण मैं गॉड देश को तथा समस्त दक्षिण भारतीय प्रदेशों को इन राज्यों के प्रशासन ने नीरापद एवं निंदनीय बना दिया था ।

आधुनिक ऐतिहासिक तथ्य - भारतीय वैश्यों की उपजाति “कमलापुरी वैश्य” उस प्राचीन वैश्यवर्ग की सन्तान है जो कश्मीर-स्थित 'कमलापुर' स्थान के मूल-निवासी थे । कमलापुर कश्मीर में 8 वीं शताब्दी-काल में एक समृद्ध नगर था, जिसका वर्णन 42 वीं शताब्दी में रचित कश्मीर के महाकवि कल्हण के प्रख्यात संस्कृत इतिहास-ग्रन्थ 'राज-तरंगिणी ” में अंकित है । कमलापुर के मूल-निवासी होने के कारण यह उपजाति “कमलापुरी वैश्य” के नाम से जानी-पहचानी जाती है ।
कमलापुर का इतिहास

- इसका इतिहास कश्मीर के इतिहास के साथ सम्बन्ध रखता है । इस कमलापुर का निर्माण काश्मीर के कारकोट वंशी राजा जयापीड़ की गौरड़-देशीया द्वितीया भार्या (पत्नी) द्वारा हुआ था, जिसका नाम कमला देवी था । यह स्थान कश्मीर में है । कश्मीर के प्राचीन गोनदीय राजवंश के अंतिम राजा बालादित्य को कोई पुत्र नहीं हुआ । अत: उसने अपनी एकमात्र कन्या अनंगलेखा को अपने एक राज-कर्मचारी दुलर्भवर्द्धन के साथ व्याह दिया । दुलर्भवर्द्धन को एक उच्च पदाधिकारी भी बना दिया गया । बालादित्य की मृत्यु के बाद दुलर्भवर्द्धन का राज्याभिषेक हुआ । सन्‌ 602 ई. में बालादित्य के निधन के साथ प्राचीन गोनन्दी राजवंश का अन्त हो गया । दुलर्भवर्द्धन ने अपने नये राजवंश का शुभारम्भ किया जिसका नाम अपने कुलवंश के रक्षक 'कारकोट” नामक नाग देवता के नाम पर 'कारकोट वंश” नामकरण किया । श्री सी. वी. वैद्य दुलर्भवर्द्धन को स्थानीय नागवंशी वैश्य जाति का मानते हैं और वैश्योचित उपाधि 'वर्द्धन भी इस कथन की पुष्टि करती है । अतः यहाँ भी एक वैश्य राजवंश का प्रादुर्भाव हुआ | इस काल में इधर भारत में महाराजा हर्षवर्द्धन का एकाधिपत्य था । वे भी वैश्य वंशीय राजकुल के थे ।

इस “राजकोट राजवंश में कुल 7 राजा हुए । इन्होंने 254 वर्ष तक राज्य-शासन किया जिसकी कालावधि सन्‌ 856 ई. तक है । इस वंश के शासन-काल में कश्मीर की सभी प्रकार से वृद्धि समृद्धि हुई । दुर्लभवर्द्धन॑ ने 36 वर्ष तक कुशलतापूर्वक राज्य-संचालन किया था । सन्‌ 637 ई. में उसका स्वर्गवास हो गया । उसके उपरान्त कश्मीर के राज्य-सिंहासन पर उनका उत्तराधिकारी दुर्लभ पदासीन हुआ । उसने अपना नया नाम 'प्रतापदित्य' रखा । इनकी पत्नी रानी प्रकाश देवी भी श्री सी. बी. वैद्य के मतानुसार एक वैश्य कन्या थी । दुर्लभ को चन्द्रापीड, तारापीड और मुक्तापीड नामक तीन पुत्र रत्न हुये थे ।

राजा दुर्लभ के देहावसान के पश्चात चन्द्रपीड राजा बना । वह अपने पिता की भांति सुशासक के रूप में प्रसिद्ध हुआ और 8 वर्षों तक राज्य का शासन-दायित्व बहन किया । इसके लोभी भाई तारापीड ने तन्त्र-मन्त्र शक्ति से इसकी हत्या करवा दी । बाद में वह स्वयं राजा बन बैठा । वह अत्यन्त क्रूर और निरंकुश शासक था । इसके अत्याचार-अनाचार से क्षुब्ध होकर डसकी प्रजा ने ही इसे मौत के घाट उतार दिया । इसने केवल 4 वर्ष तक ही शासन की बागडोर सम्भाली ।

ललितादित्य

- तारापीड के मरणोपरान्त तीसरा भाई ललितादित्य मुक्तापीड ने राज्य ग्रहण किया । यह कश्मीर के इतिहास में एक महान्‌ प्रतापशाली राजा के रूप में प्रसिद्ध हुआ । इसकी यशकीर्ति अनेक देशों के इतिहासों के पृष्ठों में अंकित है । विश्व के इतिहास के विजेता राजाओं की भांति इसने भी हर्षवर्द्धन और ससुद्रगुप्त के जीवनादर्शों को दृष्टिपथ में रखकर विश्व-विजय अभियान के लिये अपने सैन्य दल-बल के साथ प्रस्थान किया ।

“राजतरंगिणी'

- में कल्हण ने ललितादित्य की दिग्विजय का उल्लेख किया है । सन्‌ 700 ई. में ललितादित्य राज-सिंहासन पर पदारूढ़ हुए । इसने कन्नौज के राजा यशोवर्धन को पराजित किया और इसके अतिरिक्त गौड़ कलिंग, कर्नाटक, काबेरी की समतल भूमि, सप्तकोंकण, सौराष्ट्र, अवन्ति आदि प्रदेशों को जीतकर अपने अधीन कर लिया । इनकी मृत्यु कश्मीर से दूर कहीं 7 अन्यत्र हो गयी थी ।

दिग्विजय से उपलब्ध असीम धन-बैभव से ललितादित्य ने कश्मीर को आपूरित कर दिया । बिहार, मठ, मंदिर आदि धार्मिक कार्यों के निर्माण में धन-राशि व्यय की गई । उसने भूतेश नामक शिवमन्दिर को करोड़ स्वर्ण मुद्रा दान दिया । उसने परिहासपुर नामक नगर बसाया । उसमें परिहास-केशव की रजत-प्रतिमा प्रतिष्ठापित की । बहुत से अन्यान्य मन्दिर आदि बनवाये । कमलाहटूट का निर्माण कार्य :- ललितादित्य की रानी कमलावती ने अपने नाम से “कमलाहटूट” नामक बाजार बसाया ।

राज्ञी कमलावत्यस्थ कमलाहट्टकारिणी । राजत विपुलाकारं कमलाकेशव व्यधात्‌ ॥ 228॥ - राजतरंगिणी,

तरंग - 4 और उस बाजार में कमला-केशव की चांदी की मूर्ति स्थापित की । यहीं 'कमलाहट्ट” आगे चलकर जया पीड़ के राज्य काल में कमलापुर के नाम से ख्याति प्राप्त किया । जिसका कारण जयापीड की एक प्रेमिका कमला देवी थी ।ललितादित्य की मृत्यु सी. बी. वैद्य के अनुसार सन्‌ 766 ई. में हुई । ललितादित्य के निधन के पश्चात्‌ उनके ज्येष्ठ पुत्र कुबलियापीड़ ने राज्य संचालन का भार ग्रहण किया । वह बड़ा बहमी राजा था । एक वर्ष और पन्‍न्द्रह दिन राज्य करके वह सिंहासन छोड़कर जंगल में चला गया । इसके उपरान्त इसका बैमात्रेय राजा बना । वह भोगविलास में लिप्त रहा । सात वर्ष तक राज्य संचालन कर वह दिवंगत हुआ । उसके अनन्तर बत्रैमात्रैय के दो पुत्र पृथिव्यापीड़ और संग्रामपीड़ सिंहासनारूढ हुए । पृथिव्यापीड़ ने चार वर्ष संग्रामपीड़ ने सात वर्ष तक राज्य शासन चलाया । जयापीड़ - फिर बज्ादित्य के कनिष्ठ पुत्र जयापीड़ ने राज्य के शासन-सूत्र को सम्भाला । उसकी छत्र-छाया में एक बार फिर से कश्मीर के सुख सौभाग्य का सूर्योदय हुआ ।“राजतरंगिणी में कविइ्तिहासकार कल्हण ने 257 ए्लोक में इस यशस्वी राजा के शासनकाल का चित्रण किया है । जयापीड़ अपने दादा ललितादित्य मुक्तापीड़ की भांति लोक प्रसिद्ध कथानकों के नायक हुए । इसने “विनयादित्य' की उपाधि ग्रहण की थी जो मिश्रित धातुओं से निर्मित कारकोट सिक्‍के पर अंकित पाई जाती है । राज्याभिषेक के पश्चात शीघ्र ही राजा जयापीड़ ने अपने पिता महाराजा ललितादित्य मुकतापीड़ की यश-कीर्ति को पुनर्स्थापन करने के निर्मित्त दिग्विजय के लिये सैन्य शक्ति के साथ प्रस्थान किया । प्रयाग में अपनी सेना को सेनापति के अधीन सौंपकर राजा जयापीड़ छदमवेष में अकेले भ्रमण करते हुए गौड़ (बंगाल) पहुंच गये । वहाँ पर भ्रमण-क्रम में वे पौण्डू वर्द्धन (आधुनिक राजशाही) नगर में पहुंचे । वहाँ का शासक जयन्त था जो गौड़ नरेश के आधिपत्य में था ।

इस स्मृद्धिशाली नगर का अवलोकन-निरीक्षण कर छद्मवेषी .राजा जयापीड़ मंत्र-मुग्ध हो गये । वहाँ कुछ दिन वे रुक गये । एक दिन वे कौतूहलवश कीर्तिकेय के मंदिर में नृत्यावलोकन करने गये । राजा जयापीड़ स्वयं भरत-नाटय कला में प्रवीण थे । वे वहीं एक किनारे एक शिला के सहारे बैठ गये। उसकी देवीप्यमान शौर्यपूर्ण मुखाकृति ने कमला नाम की नर्तकी को मोहाकांत कर दिया । उसने सोचा, ऐसा प्रतीत होता है कि यह कोई राजवंशी पुरुष है । उसने उसमें राजा के गुण-लक्षण देखे । उसने अपनी एक सहनर्तकी को छद्मवेषी राजा के निकट है और उसे अपने निवास स्थान पर बुलवा लिया । राजा कुछ दिनों तक वहीं कमला- के सम्पर्क साहचार्य में रहकर भोग-विलास में लिप्त रहे ।

एक दिन की घटना है । राजा जयापीड़ सन्ध्या करने नगर से दूर नदी के किनारे पर गए थे । उनके आने में विलम्ब होने के कारण कमला अत्यधिक चिन्तित हुई । राजा के पहुँचने पर उसने वहां एक विशालकाय सिंह के रहने के विषय में चर्चा की। यह सुनकर जयापीड़ सन्ध्या समय कृपाण धारण कर नगर से बाहर निकल पड़ा उसने सिंह को चुनौती देकर आमन्त्रण किया । सिंह ने बाहर निकलकर राजा जयापीड़ पर आक्रमण किया । राजा ने अपनी बांह सिंह के मुख पर डाल दी और साथ ही कृपाण से सिंह का हृदय विदीर्ण कर दिया । सिंह तत्क्षण मर गया । राजा ज॑यन्त स्वयं उस घटना-स्थल पर गये जहाँ सिंह का प्राणान्त किया गया था एक राजकर्मचारी ने मृत सिंह के लबड़े से एक केयूर निकाल कर दिया जिस पर राजा जयापीड़ नामांकित था । राजा जयन्त अपने मंत्री और पुरजनों के साथ कमला के घर ठहरे हुये छद्मवेषी राजा जयापीड़ के पास पहुंचे । वे उन्हें अर... यहाँ ले आये । अपनी एकलौती पुत्री कल्याण देवी काविवाह राजा जयापीड़ से कर दिया । तब जयापीड़ ने अपने श्वसुर को गौड़ाधिपति से युद्ध करके उन्हें स्वतन्त्र कर दिया । फिरअपने देश कश्मीर के लिए प्रस्थान किया । गौड़ देश की विजयके साथ कमला देवी और कल्याण देवी को साथ लेकर वे कश्मीर चल दिये । कश्मीर लौटकर राजा ने विजयोत्सव में अपनी प्रियाओं के साथ नगर इत्यादि बसाये, मन्दिर इत्यादि बनवाये । जयन्त की: पुत्री कल्याण देवी ने अपने नाम पर “कल्हणपुरं” नामक नगर बसाया । राजा जयापीड़ ने “मल्हाणपुर”' बसाया और वहां पर विपुलकेशव नामक विष्णु का मन्दिर बनवाया । कमलादेवी ने अपने नाम पर 'कमलापुर' नामक नगर बसाया ।

जयापीड़ विद्या और कलाओं को प्रोत्साहन-प्रश्नय देकर अपने दादा ललितादित्य मुकतापीड़ से भी नाम-यश में बहुत आगे बढ़ गये । 3 वर्ष तक राज्य-सुख भोगकर शासन संचालन की कार्य दायित्व अपने पुत्र ललितापीड़ को सौंप सन्‌ 78 ई. में वे इस धरती से उठ गये । उत्पल के पुत्र अवन्ति वर्मन ने कारकोट-वंश के अन्तिम राजा अनंगापीड़ को गद्दी से उतारकर स्वयं सिंहासनरुढ़ होकर “उत्पलराजवंश ” का आरम्भ किया ।

“कमलापुर' नगर-निर्माण

- इसकी निर्माण विधि 754 ई. और सन 782 ई. के मध्य का समय माना जाता है । इसका व्यापार-कार्य सम्पूर्ण उतरापथ तथा मध्य भारत और भरोंच आदि बन्दरगाहों से विदेशों के साथ होता था । राजाओं के वैश्य वंशीय होने के कारण व्यापारी लोगों को विशेष प्रश्रय एवं -सुविधायें उपलब्ध थीं । काश्मीरी वैश्य समुदाय श्रेणीबद्ध होकर कश्मीर से वाराणसी, पांटलिय॑पुत्र, कन्नौज, गौड़ अंगं, अंवन्ति आदि स्थानों पर व्यापार के लिये जाते-आंते थे |

कमलापुर से कमलपोर

- भाषा विज्ञान के आधार पर“कमलापुर”' का “कमलपोर' होना अंत्यधिक स्वाभाविक तथा समीचीन है । भास्क ने भी अपने “निरूक्त ' नामक ग्रन्थ में से इस प्रकार के ध्वनि परिवर्तन के विषय में लिखा है -'अथाद्यन्त विपय्यों भवति स्तोक रज्जु: सिकता इति” । इससे उचित प्रमाणित होता है कि 'कमलापुर' भी “कमलपोर' में बदल गया । आज यही नाम प्रचलित है । यही सीपियन से श्रीनगर को जाने वाले मार्ग के किनारे 74" 54! अक्षांश तथा 33" 48' देशान्तर पर बसा हुआ“कमलपोर' गांव है ।

मूल निवास से निर्गमन एवं प्रसार

कालान्तर में कश्मीर के अन्तर्गत मुसलमान शासकों के शासनकाल में हुए उत्पीड़न एवं दुर्व्यवहार के फलस्वरूप अथवा वाणिज्य व्यापार के क्रम में कमलापुरी वैश्य समुदाय कश्मीर से निकलकर पंजाब में निवास करने के उपरान्त विभिन्‍न दलों में भारत के अनेकों क्षेत्रों में जाकर बसते गए । परिणाम स्वरूप, एक दल गंगा-यमुना के उत्तवर्ती व्यापार-मार्ग से आगे बढ़ता हुआ वर्तमान उत्तर-प्रदेश के विभिन्‍न नगरों में और फिर धीरे-धीरे उत्तर बिहार, नेपाल तराई, बंगाल तथा असम प्रदेश के क्षेत्रों में फैलता गया । दूसरा दल गंगा-यमुना के दक्षिणी मार्ग से अवन्ति, महाकौशल (वर्तमान मध्यप्रदेश), महाराष्ट्र और दक्षिण बिहार को बढ़ता गया । कालक्रम से स्थानान्तरों में “कमलापुरी वैश्य' के “'कमलापरी' विशेषण में यदा-कदा अन्तर आता गया और अपश्रंश रूप में “कवलापुरी” कमालपुरी, कमलापति, कमलापुरी जैसे नामों से भी इस समुदाय के सदस्य परिचित होते रहे । बाद में वर्तमान शताब्दि के द्वितीय दशक[से समुदाय की संगठन-संस्था अखिल भारतीय कमलापुरी वैश्य महासभा ' के तत्कालीन कर्णधारों के प्रयासों के फलस्वरूप सभी विकृत नामों का निराकरण हो एक संशोधित नामकरण कमलापुरी वैश्य”प्रचलित होता आ रहा है ।

आधुनिक निवास के अंचल - कमलापुरी वैश्य समुदाय के लोग वर्तमान समय में भारत के निम्नांकित पाए जाते हैं –
बिहार: पटना, आरा, बक्सर, डेहरी, आनसोन, वैशाली, छपरा, गोपालगंज, सीवान, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मधुबनी शिवर, सीतामणी, पश्चिमी चंपारण, पूर्वी चंपारण, सुपौल, झरिया, नालंदा, कटिहार, पूर्णियां, मुंगेर, भागलपुर
झारखंड: रांची, जमशेदपुर, हजारीबाग, रामगढ़, धनबाद, बोकारो, गुमला, गढ़वा, पलामू, साहिबगंज, गोड्डा
उत्तर प्रदेश : लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, मुगलसराय, मिर्जापुर, जौनपुर, सुन रद्द, गाजीपुर गाजियाबाद, फिरोज़ाबाद, अयोध्या, फैज़ाबाद, बरेली, देवरिया, बैरीज, उतरौला, गोंडा, बलरामपुर, सादुल्लाहनगर, गोरखपुर, महाराजगंज, बस्ती, सिद्धार्थ नगर
पश्चिम बंगाल: कोलकाता, हावड़ा, 24 परगना (उत्तर), 24 परगना (दक्षिण), हूगली, वर्धमान , आसन सोल, कुच बिहार, सारदा पल्ली, जलपाईगुड़ी, सिलीगुड़ी
उड़ीसा : राउरकेला, झारसुगुड़ा , बरगढ़ सुंदरगढ़, खरियार रोड
असम: डिब्रूगढ़, तिनसुकिया
मध्यप्रदेश: भोपाल, जबलपुर, महासमुद्र, सतना
छत्तीसगढ़: रायगढ़, सर गुना, अंबिकापुर
दिल्लीप्रदेश: सम्पूर्ण दिल्ली शहरी क्षेत्र
महाराष्ट्र: मुंबई, पुणे, नागपुर, नासिक
कर्नाटक: बीदर, बैंगलुरु
गुजरात: वडोदरा
नेपाल: तराई, तुलसीपुर, ओकरा, सुनसरी, पसरा, रोटर, इनरवा, मौरंग, धनुषा, गौड़, मोहनतरी, सिहरा
गोत्र एवं धार्मिक संस्कार

कमलापुरी वैश्य जाति में विशेषता भलन्दन, गर्ग, नाग, कर्कट पाराशर आदि गोत्र हैं । इनमें कुछ गोत्र वंश जन्य हैं, जैसे नाग (इस नाग वंश का कारकोट राजवंश भी था) और कर्कट (जो कारकोट राज़वंश का ही द्योतक है) । आजकल कमलापुरी वैश्य समुदाय के सदस्य विशेषतया वैष्णवी हिन्दू धर्म के अनुयायी हैं । कुछ शैव, कुछ शावत, कुछ नानकशाही तथा कुछ आर्यसमाज के मतावलम्बी भी हैं । ये यज्ञोपवीत धारण करते हैं और द्विजात्योजित धार्मिक संस्कार एवं कर्मकाण्डों का आचरण करते हैं | सामान्यत: खान-पान में भरामिष भोजी हैं ।

रीति रिवाज -

विवाह संस्कार सम्बन्धी कमलापुरी वैश्य समुदाय की कुछ निजी विशेषतायें हैं ॥ जिनका निर्वाह परम्परागत तौर पर ये अभी तक करते आ रहे हैं । उदाहरणार्थ
(क) विवाह के पूर्व वर-पक्ष और कन्या-पक्ष क्रम से कन्या और वर का निरीक्षण अनिवार्यत: करते हैं तथा अधिकांशत: जन्मकुण्डलियों का भी मिलान किया जाता है |
(ख) तिलक- दहेज के रूप में किसी भी रकम का कोई प्रचलन नहीं है ।
(ग) तिलक के रस्म पर (जिसे 'वर-रक्षा” कहा जाता है) कन्या पक्ष वाले वर का पूजन फूल-पान, मिष्ठान एंवं वस्त्रादि से करते हैं ।
(घ) विवाह के अवसर पर वर-पक्ष वाले वधू के लिये एक ज्ञरे में बंधा और रेशम में लपेटा आभूषण (जिसे ताग पाट ढोलना कहते हैं) एक लाल रेशम की चोली और एक कुसुम रंग में रंगी चुनरी लाते हैं ।

मृतक श्राद्ध संस्कार स्थान भेद से कमलापुरी वैश्यों में भी कहीं 13 दिन और कहीं 15 दिन पर सम्पन्न होता है ।

महासभा का संचालन:-

कमलापुरी वैश्य जाति के एकमात्र राष्ट्रीय संगठन अखिल भारतीय कमलापुरी वैश्य महासभा द्वारा संचालित होता है । उसका नियंत्रण और संचालन निर्वाचित अध्यक्ष द्वारा तथा गठित कार्य समिति एवं राष्ट्रीय केंद्रीय परिषद की सदस्यों और पदाधिकारियों द्वारा संविधान के अंतर्गत की जाती है ।
महासभा के संस्थापन काल 1915 से अब तक 13 राष्ट्रीय महा अधिवेशन देश के विभिन्न प्रदेशों स्थानों में हो चूके हैं । राष्ट्रीय महासभा के अंतर्गत नीम या प्रदेशिक सेवाएँ कार्यरत हैं, जिनके द्वारा प्रदेश जिला और स्थानीय सभाओं का विविध संचालन होता है ।
बिहार झारखंड संयुक्त कमलापुरी वैश्य प्रदेशिक सभा ।
मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ संयुक्त कमलापुरी वैश्य प्रदेशिक एक सभा ।
उत्तर प्रदेश कमरा पूरी वैश्य प्रदेशिक सभा ।
पश्चिम बंगाल कमलापुरी वैश्य प्रदेशिक सभा ।
उत्कल ओडिशा कमलापुरी वैश्य प्रादेशिक सभा ।
असम कमलापुरी वैश्य प्रदेशिक सभा ।
महाराष्ट्र कमलापुरी वैश्य प्रादेशिक सभा ।
कर्नाटक कमलापुरी वैश्य प्रादेशिक सभा ।
दिल्ली कमलापुरी वैश्य प्रादेशिक सभा ।

महासभा के तत्व धन में दो अंक गठित इकाई महिलाओं और युवाओं में जागरूकता और मार्गदर्शन के कार्यक्रम है ।
अखिल भारतीय कमलापुरी वैश्य महिला संघ
अखिल भारतीय कमलापुरी वैश्य युवा संघ

इनका चुनाव भी महासभा के राष्ट्रीय महा अधिवेशन के अवसर पर अलग से दोनों इकाइयों के संविधान के अंतर्गत होता है ।

संविधान:

महासभा का अपना संविधान है, जिसका निर्माण/संशोधन प्रादेशिक सभाओं के प्रस्ताव अथवा अनुशंसा पर राष्ट्रीय केंद्रीय परिषद के सदस्यों द्वारा प्रस्तावित, केंद्रीय परिषद की अहम बैठकों में अथवा महासभा के खुले महाधिवेशन मैं विचार विमर्श कर बहुमत से अथवा सर्व सहमति से पारित होकर संशोधन अथवा नए नियम धाराएं बनाए जाते हैं ।

जनगणना :

महासभा द्वारा पूरे देश में सर्वजातीय जनगणना सर्व प्रथम 1947 में संपन्न कराया गया था । पुनः 44 वर्षों के उपरान्त इसी पर 14 नवंबर 1991 को तत्कालीन अध्यक्ष डॉक्टर भरत प्रसाद गुप्ता की अध्यक्षा में तथा तत्कालीन महामंत्री श्री राम नरेश गुप्ता के संचालन में शुभारंभ हुआ जो 2007 में वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री राम नरेश गुप्ता की अध्यक्षता में पूर्णता संपन्न हुआ । साथ ही जनगणना पुस्तक का प्रकाशन भी संपन्न हुआ ।

पूरे देश में अपने स्वजातीय बंदूक कहाँ -कहाँ बसे है तथा उनकी सामाजिक ,शैक्षिकरण, राजनीतिक ,व् यापारिक तथा लिंगानुपात तथा अन्य गतिविधियों की जानकारी प्राप्त की जा सके,जो वहाँ सभा के लिए अमूल्य धरोहर है ।

इस संदर्भ में पहली नियममासी सन् 1918 में बनी, जब-जब अध्यक्षता हुई संविधान का संशोधन होता रहा है अंत अंकित दिमाग 21 दिसंबर 2015 को केवटी (दरभंगा) में त्रयोदश महाअधिवेशन की अवसर पर तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री राम नरेश गुप्ता की अध्यक्षता मी संशोधन संपन्न हुआ ।

कल्याणकारी योजनाएं :

महासभा समाज की जरूरतमंद लोगों की सहायतार्थ निम्नलिखित योजनाएं संचालित है :
कमलापुरी छात्रवृत्ति योजना
कमलपुरी पत्रिका योजना
कमलापुरी समाज कल्याण योजना
कमलपुरी वैवाहिक नियोजन योजना
कमलापुरी स्थायी केंद्रीय कार्यालय न्यास योजना
कमलापुरी रतन सम्मान योजना
कमलापुरी आपात राहत योजना

उपरोक्त साक्षी योजनाओं के कार्य-विधान है जिसके अन्तर्गत ,अध्यक्ष की अध्यक्षता तथा महामंत्री के संचालन में तथा योजना सचिव संपादक तथा संयोजक व योजना परिषद के सदस्यों के द्वारा संचालित होता है ।

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